Wednesday, 1 July 2015

आत्म-मंथन


शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान प्रवक्ता ने जब सामने से शिक्षकों से प्रश्न किया कि आप मेँ से कितने टीचर्स बाई चॉयस बने हैं और कितने बाई चान्स बने हैं? उस समय तो सभी की तरह मैंने भी टीचर बाई चॉइस का ही मत दिया लेकिन मन में यह प्रश्न घूमता ही रहा कि क्या वाकई में मैं टीचर बाई चॉयस हूँ ?

बहुत विचार करने के बाद मेरे मन में यह सोच आई कि आखिर मैं अध्यापिका बनी ही क्योँ? क्या मैंने अपने जीवन का लक्ष्य अध्यापिका बनना रखा था? नहीँ मैंने तो कभी भी नहीं सोचा था कि टीचर बनूँगी क्यों कि कक्षा  में टीचर्स के लिए की गई विचित्र टिप्पणी मुझे सदैव दुःखी कर देती थी और मैं हमेशा ये सोचती थी की कोई टीचर कितनी भी मेहनत क्यों न कर ले, कितनी भी मधुरता सरलता से बच्चों को जीवन परक मूल्यों की प्रेरणा दे, कोई न कोई उसे पक्षपाती एवं गुस्सैल का तगमा जरूर दे देता है।  

शायद यही वज़ह थी कि मैं टीचर तो कभी नहीं बनना चाहती थ। अपनी स्नातक की डिग्री लेने के बाद यही सोचा कि बैंक की परीक्षा पास करके बैंक में नौकरी करुँगी और इस दिशा में कदम भी बढ़ाये, लेकिन जिंदगी की पेचीदगियों में परीक्षाये कई बार पास करने के बाद भी बैंकिंग में अपना कैरियर नहीं बना सकी। विवाह के आठ वर्ष बाद फिर सोचा कि कुछ न कुछ तो करना ही है इसलिए पत्राचार द्वारा बी.एड. करके शिक्षक भर्ती परीक्षा दी व निगम विद्यालय में अध्यापिका के पद पर नियुक्त हुई। 

शुरू शुरू में तो यही लगता रहा है कि मैं ये क्या कर रही हूँ ? अपने लक्षय से हट कर मै किस तरफ चल पड़ी, लेकिन जैसे जैसे मैं विद्यालय में बच्चों के बीच उनके मासूम चेहरों को देखती और उनकी भोली सी आँखों में अपने लिए सम्मान व् प्यार का मिला जुला रूप, उनके प्यारे से प्रश्न - यह सब मुझे उनसे जोड़ते चले गये।  और पता नहीं कब अपने मन, वचन और कर्म से अध्यापिका बन गई। 

आज उस प्रवक्ता के प्रश्न ने मुझे सोचने पे मजबूर कर दिया कि मैं अध्यापिका बाई चॉइस हूँ या बाई चांस।  ज़िन्दगी के २१ वर्ष अध्यापन कार्य करते हुए मैं यह भी भूल गई कि यह कार्य मेरा शौक था या मजबूरी। कल शायद मई यह कार्य ज़बरदस्ती करने के लिए निकली थी पर आज मैं अपने कार्य  के प्रति इस प्रकार समर्पित हो गई हूँ कि समाज में होने वाली हर घटना को अध्यापिका  की नज़र से ही देखती हूँ। मानो मैं जन्म-जात अध्यापिका के गुण ले कर ही आयी थी। 

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