आजकल होली की धूम मची हुई है। गुझिया, चिप्स और मिठाइयाँ सबकी तैयारियाँ शुरू हो गयी हैं। बहू आज ही सुबह कह रही थी माँ बाजार में सब मिल जाता है फिर आप इतनी मेहनत क्यों करते हो? कैसे बताऊँ उसको की पहले तो कई दिनों पहले से घर में उत्सव जैसा लगने लगता था, साँझा परिवार होने की वजह से हर काम लार्ज स्केल पर होता था। चिप्स बनते तो सारी छत पर चादरें बिछा कर चिप्स सूखने डालना, माँ का हुक्म होता था सभी चिप्स अच्छी तरह से फैलाना। निगरानी रखना की चिड़िया चोंच न मार जाये, चुन्नी से ढक देना मिट्टी न पड़ जाए। आजकल तो थोड़ा सा बस शगुन करने जितना ही सामान बनाया जाता है।
खैर मुझे तो होली का नाम आते ही बचपन की वो ढेर सारी घटनाएँ ऐसे याद आ जाती हैं मनो कल ही की तो बात है। उस बार भैया की बोर्ड की परीक्षाएं थीं, माँ पिताजी का सख्त हुक्म था कोई होली वोली नही होगी। उसका ध्यान भी भंग होगा, कंसंट्रेट नही कर पायेगा। अच्छे नंबर लाने है उसे। "पर।", "कोई पर वर नही, कह दिया न"।और हम सब छोटे बच्चे डर के मारे एक कोने में छुप कर खुसर फुसर करने लगे। "ये भी कोई बात हुई, जैसे और किसी के पेपर नही होते। पता नही बड़े भैया ऐसे कौन से महान पेपर देने वाले है।" हम सबको यही लगने लगा था की माँ का तो पहले ही लगता था पिताजी भी बड़े भैया को हम सबसे ज्यादा प्यार करते है। इस बार की होली सूखी ही जाने वाली है। बस इतना सा रिएक्शन था बच्चों का........
सुबह सुबह पापा ने थोड़ा सा टीका कर होली का शगुन किया । होली मुबारक कह कर हम सबके माथे पर होली का टीका लगाया। और अपने कमरे में चले गए। और तभी दरवाजे पर बेल बजी, खोला तो छोटी बुआ रंगो के थैले हाथ में ले कर, मिठाई की टोकरी के साथ घर में घुसीं। "क्या त्यौहार के दिन भी दरवाजे बंद कर रखे है? बच्चे कहाँ हे सारे? कर्फ्यू क्यों लगा रखा हे घर में ???" "बुआ वो पिताजी ने होली खेलने से मना किया है, भैया के बोर्ड्स है न।""अरे हटो! पूरा साल इस त्यौहार का इन्तज़ार करते हैं", कहते कहते बुआ बाथरूम में घुस गयी। पानी की बाल्टी उठाई और जा पहुंची भैया के कमरे में, "विमल बाहर आता है या यही से बाल्टी से होली खेलनी है?" और हम सब बच्चे डर के मारे पिताजी के कमरे की तरफ देख रहे थे की अभी पिताजी बाहर आएंगे और बम फूटेंगे। "सुन रहा है तू या मैं अंदर आ जाऊँ?" "बुआ वो पिताजी..." और तब तक बुआ जी ने भैया को बाहर खींचा और रंग के पानी से सरोबार कर दिया। हम सब ख़ुशी के मारे चिल्लाने लगे और एक दूसरे को रंग मलने लगे। शोर सुन कर पिताजी गुस्से में कमरे से बाहर आये। बुआजी ने पीछे से गुलाल उनके ऊपर पलट दिया। बुरा न मानो होली है। सबकी हिम्मत बड़ गयी, कोई बुआ की आड़ लेकर गुलाल उड़ा रहा था, कोई मग से ही पानी दूसरे पर डाल रहा था।
"क्या भैया, ये क्या? पूरा साल पढाई की है। विमल के १ -२ घंटे होली खेलने से उसके नम्बर कम नही होंगे। सब बच्चों का मुँह देखो कैसे खिल गया है। विमल भी देखो कितना एन्जॉय कर रहा है। आपको क्या लगता है जब उसके सारे फ्रेंड्स होली खेल रहे है तो उसका मन पढाई में लगेगा?" "जा बेटा, थोड़ी देर बाहर खेल लो।"
वो तो बाद में पता चला कि माँ ने बुआ को होली पर लगे कर्फ्यू के बारे में बताया था और हमारे उतरे चेहरों के बारे में भी। वो जानती थी की सिर्फ बुआ ही हमे इस कर्फ्यू से रिलीज़ करवा सकती थी। उन्ही की बदौलत हमारी सुखी, खुश्क, बेमजा होली सबसे ज्यादा रंगीन, गीली और खुशगवार होली में बदल गयी। "थैंक्यू बुआ" कह कर हम सब बुआ से लिपट गए। मन ही मन सोच रहे थे की हमने अपने मन में बेकार ही ये सोच बना ली थी की माँ भैया को ज्यादा प्यार करती है, माँ के लिए तो सभी बच्चे बराबर और सबके लिए उसका प्यार बराबर।
"थैंक्यू माँ" अनायास ही मेरे मुँह से निकला। "क्या?" पति के इस प्रश्न पर मै वर्तमान में आ गयी। कुछ नही कह कर मुस्कुरा दी।
I’m pledging to #KhulKeKheloHoli this year by sharing my Holi memories atBlogAdda in association with Parachute Advansed.
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